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Vegetation of Chhattisgarh छत्तीसगढ़ में प्राकृतिक वनस्पति -

Vegetation of Chhattisgarh
(छत्तीसगढ़ में वनस्पति  )

प्राकृतिक वनस्पति एवं वन्य प्राणी
भारत का प्राकृतिक पर्यावरण
प्राकृतिक वनस्पति, प्रकार एवं वितरण, छत्तीसगढ़ में प्राकृतिक वनस्पति 
वनों का संरक्षण, जैव विविधता का संरक्षण
वन्य जीव संरक्षण, वन्य जीव, अभ्यारण्य योजना 


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भारत का प्राकृतिक पर्यावरण एवं प्राकृतिक वनस्पति के प्रकार एवं वितरण, छत्तीसगढ़ में प्राकृतिक वनस्पति
प्राकृतिक वनस्पति का अभिप्राय किसी क्षेत्र या प्रदेश में वहाँ के भौतिक पर्यावरण, जलवायु तथा मिट्टी के अनुरूप प्राकृतिक रूप से उगने वाली वनस्पति से है जिसमें पेड़-पौधे, झाड़ियाँ, घास आदि है। पृथ्वी की सतह पर बिना किसी मानवीय प्रयास के स्वत: उत्पन्न होने वाले पेड़-पौधों, वन, कंटीली झाड़ियों, घास आदि के आवरण को ही प्राकृतिक वनस्पति कहते हैं। प्राकृतिक वनस्पति धरातल की बनावट, उच्चावच, जलवायु की दशाओं, अपवाह तथा मिट्टी से गहनतम रूप से प्रवाहित होती है। प्रकृति ने भारत को विविध प्रकार की वनस्पति प्रदान कर अमूल्य वरदान दिया है, एक अनुमान के अनुसार भारत में पेड़-पौधे की लगभग 47000 प्रजातियां पाई जाती है जिनमें से 35 प्रतिशत प्रजातियाँ भारतीय है जो विश्व में और कहीं नहीं पाई जाती है, भारत के क्षेत्रफल को देखते हुए यहाँ पाए जाने वाले पेड़पौधों की किस्मों की यह संख्या बहुत अधिक है।
हमारे देश की प्राकृतिक वनस्पति में काफी विविधता पाई जाती है कहीं सदाहरित वन है तो कहीं कंटीली झाड़ियाँ पाई जाती है, कहीं फूलों वाले पौधे देखने को मिलते हैं तो कहीं बिना फलों वाले पौधे हैं यहाँ फर्न, शैवाल, कवक तथा बिना फूलवाले पौधे भी पाए जाते हैं, वनस्पति की यह विविधता देश के विविध धरातलीय स्वरूप, जलवायु, मिट्टी तथा अपवाह तंत्र की विविधता के कारण है।

प्राकृतिक वनस्पति का वर्गीकरण -
प्राकृतिक वनस्पति को निम्नलिखित वर्गों में विभक्त किया गया है -
(1) वन - जिन क्षेत्रों में घास तथा झाड़ियों की तुलना में वृक्षों तथा पौधों की प्रधानता होती है, उन्हें वन कहते हैं, यह 200 सेमी से अधिक वर्षा वाले भाग में उगते हैं।
(2) झाड़ियाँ - जिन भागों में वर्षा 100 सेमी से कम होती है, वहाँ जल की कमी के कारण न तो अधिक उंचे होते है और न अधिक हरे-भरे, इनकी उंचाई सामान्यतया 6 से 10 मीटर तक होती है, इनमें कांटे पाए जाते हैं, इस तरह की वनस्पति पंजाब, राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश तथा दक्षिण के पठार के शुष्क भागों में पाई जाती है। नागफनी बैर की झाड़िया इत्यादि।
(3) घास-भमियाँ - जिन क्षेत्रों में शुष्क ऋतु की अवधि ढाई महीने से अधिक होती है वहाँ वक्षों का स्थान घास ले लेती है। वर्षा की कमी से इन क्षेत्रों में वृक्षों की अपेक्षा घास की प्रधानता पाई जाती है। इन पर ज्यादातर कृषि कार्य किया जाता है।

वनस्पति के प्रकार - भारत में मुख्यत: छः प्रकार के वन पाए जाते है -
1. उष्ण कटिबन्धीय सदाबहार वनस्पति
2. उष्ण कटिबन्धीय आर्द्रमानसूनी या पतझड़ वाले वन ।
3. उष्ण कटिबंधीय शुष्क मानसूनी वनस्पति
4. मरूस्थलीय और अर्ध-मरूस्थलीय कंटीले वनस्पति
5. ज्वारीय अथवा डेल्टाई वनस्पति
6. पर्वतीय वनस्पति

अब हम इन पर विस्तार से चर्चा करेंगे
(1) उष्ण कटिबन्धीय सदाबहार वन - इन वनों को विषुवत रेखीय उष्ण व आर्द्र वन अथवा कठोर लकड़ी के सदापर्णी वन या उष्ण कटिबंधीय वन भी कहा जाता है।
विस्तार एवं क्षेत्र - ये वन 10° उत्तरी अक्षांश से 10° दक्षिणी अक्षांश के मध्य एक पेटी के रूप में संपूर्ण विश्व में फैले हैं। भारतवर्ष में इन वनों का विस्तार पूर्वी हिमालय प्रदेश, असम, मेघालाय, तराई प्रेदश पश्चिमी घाट एवं अंडमान निकोबार द्वीप समूहों में मिलते हैं। इनकी प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं -
जिन क्षेत्रों में औसत वार्षिक तापमान 27° सेग्रे और औसत वार्षिक वर्षा 200 सेमी तथा इससे अधिक होती है उन्हीं क्षेत्रों में ये वन पाये जाते हैं।
वर्षा की अधिकता के कारण ये वन सदैव हरे-भरे बने रहते हैं। पतझड़ कभी भी एक साथ नहीं होता।
वे वन बहुत सघन होते हैं। यहाँ वृक्षों के नीचे अनेक छोटे -छोटे वृक्ष, झाड़ियाँ और लताएं उगी रहती हैं, अत: वे बहुत ही दुर्गम होते हैं।
एक ही स्थान पर एक प्रकार के अनेक वृक्ष बहुत कम मिलते हैं।
वृक्षों की उंचाई 60 से 100 मीटर तक होती है।
वृक्ष एक दूसरे के निकट घने झुरमुटों में मिलते हैं। लताएं एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष तक फैल जाती हैं, जिससे नीचे भूमि तक सूर्य का प्रकाश नहीं पहुंच पाता है।
इन वनों में जंगली जानवर बहुत मिलते हैं।

प्रमुख वृक्ष - एबोनी, महोगनी, आबनूस, रबर, बाँस, बेंत, ताड़, नारियल, गुरजल, सिनकोना, चंदन व लौहकाष्ठ आदि।

आर्थिक महत्व - ये वन आर्थिक दृष्टि से उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं,क्योंकि
(1) लकड़ी कठोर तथा अनुपयोगी होती है।
(2) सघन वन होने से यातायात के साधन नहीं होते हैं।
(3) एक ही स्थान पर एक प्रकार के वृक्ष बड़ी संख्या में उपलब्ध नहीं होते हैं। अत: एक प्रकार की लकडी एकत्रित करना कठिन है।
(4) भूमि दलदली तथा उबड़-खाबड़ है, जिससे परिवहन साधनों का विकास नहीं हुआ।
(5) जलवायु स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है।

(2) उष्ण कटिबंधीय आर्द्र मानसूनी अथवा पतझड वाले वन - ये चौड़ी पत्ती वाले वन शुष्क ऋतु में अपनी पत्तियाँ गिरा देते हैं, इसलिये इन्हें पतझड़ या पर्णपाती वन कहते हैं। इन वनों का विस्तार मानसूनी प्रदेशों में अधिक होता है, इसलिये इन्हें मानसूनी वन कहते हैं।

विस्तार एवं क्षेत्र - ये वन उन प्रदेशों में पाये जाते हैं, जहाँ वर्षा की मात्रा 100 से 200 सेमी तथा औसत तापमान 25 सेग्रे के लगभग रहता है। ये वन मुख्यत: उप हिमालय प्रदेश पश्चिमी घाट के पूर्वी ढाल एवं दक्षिणी पठार के उत्तरी -पूर्वी भाग में अधिक फैले हुए हैं। दूसरे शब्दों में, इनका विस्तार मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडू, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश में पाया जाता है।

इनकी प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित
ये वनसदाबहार वनों की भांति अधिक सघन नहीं होते हैं।
आर्द्रता की कमी के कारण इन वृक्षों की ऊँचाई 30 से 50 मीटर तक ही होती है।
शुष्क ऋतु में ये वृक्ष अपनी सभी पत्तियां एक साथ गिरा देते हैं, जिससे वाष्पीकरण कम होता है और शुष्कता का सामना ये आसानी से कर लेते हैं।
आर्थिक दृष्टि से उपयोगी वृक्ष होते हैं।

प्रमुख वृक्ष - यहाँ के मुख्य वृक्ष साल, सागौन, साखू, शीशम, चंदन, कुसुम, पलास, ढाक हर्ड, बहेडा, आंवला, बाँस, शहतूत, गूलर, महुआ और हल्दू आदि हैं।
आर्थिक महत्व - आर्थिक दृष्टि से ये वन अधिक उपयोगी हैं
वनों से आर्थिक दृष्टि से उपयोग लकड़ी उपलब्ध होती है - जैसे सागौन, शीशम, साल, बीजा आदि ।
एक स्थान पर ही एक ही प्रकार के बहुत से वृक्ष मिलते हैं जिससे लकड़ी एकत्रित करना सरल होता है।
सघन वन होने के कारण परिवहन साधनों का विकास हआ है।
इन वनों से अनेक प्रकार के उपयोगी फल, गोंद, बीज आदि प्राप्त होते हैं।

(3) उष्ण कटिबंधीय शुष्क मानसूनी बन - ये वन मुख्यत: उन भागों में पाये जाते हैं, जहाँ वर्षा 50 से 100 सेमी तक होती है। सामान्यत: ये वन आर्द्र मानसूनी वनों के पश्चिम की ओर पाये जाते हैं, क्योंकि हमारे देश में वर्षा की मात्रा पूरब से पश्चिम की ओर कम हो जाता है। अत: इन वनों का विस्तार दक्षिणी तथा पश्चिमी उत्तरप्रदेश, पंजाब, हरियाणा, पूर्वी राजस्थान, पश्चिम मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश तथा कर्नाटक के अधिकांश भागों में पाया जाता है। इन वनों की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं
(1) वर्षा की कमी के कारण इन वृक्षों की ऊँचाई कम होती है।
(2) इन वृक्षों की जड़ें लंबी, पत्तियाँ छोटी, चिकनी तथा रोएंदार होती हैं।
(3) इन वृक्षों के तनों पर मोटी, खुरदरी छाल होती हैं, जिससे वृक्ष तीव्र वाष्पीकरण से बच सकें।
(4) इन वनों के वृक्ष ग्रीष्म ऋतु के आगमन के साथ ही अपनी पत्तियाँ गिरा देते हैं, ताकि शुष्क ग्रीष्म ऋतु का सामना किया जा सके।

प्रमुख वृक्ष - शीशम , हल्दू, सिरस, महुआ आम, पीपल, नीम, बरगद तथा जामुन आदि प्रमुख वृक्ष हैं।
आर्थिक महत्व- ये वन आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है -
(1) इनवनों की भूमि कृषि योग्य होती है, अत: कृषि कार्य करने के लिये वनों की भूमि को साफ कर दिया गया है। यही कारण है कि ये वन विस्तृत रूप से किसी भी क्षेत्र में नहीं पाये जाते। पंजाब व हरियाणा में तो 9 प्रतिशत से भी कम भूमि पर यह वन शेष रह गये हैं।
(2) सघन वन होने के कारण इस क्षेत्र में परिवहन साधनों का विकास हुआ है।
(3) इन वनों की लकड़ी फर्नीचर बनाने के लिये उपयोगी है।
(4) इन वनों से अनेक प्रकार के उपयोगी कंद, मूल फल प्राप्त होते हैं।

(4) मरूस्थलीय व अर्द्ध मरूस्थलीय कंटीले वन - जिन भागों में वर्षा की मात्रा 25 सेमी से कम होती है, वहाँ मरूस्थलीय वन तथा जहाँ वर्षा 25 से 50 सेमी तक होती है वहाँ अर्द्ध मरूस्थलीय वन पाए जाते हैं। ये वन मुख्यत: राजस्थान, दक्षिणी हरियाणा, पश्चिमी पंजाब , उत्तर पश्चिमी उत्तर-प्रदेश, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडू व कर्नाटक के शुष्क भागों में पाये जाते हैं। इन वनों की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं
(1) वर्षा की कमी के कारण इन वनों में छोटे-छोटे कांटेदार वक्ष तथा झाडियाँ ही पैदा होती हैं।
(2) यहाँ की वनस्पति आर्द्रता की कमी को अन्य प्रकार से पूरा करती है।
(3) इन वनों में वृक्ष छोटे और दूर-दूर होते हैं।
(4) यहाँ के वृक्ष लंबी और मोटी जड़ों वाले होते हैं, जिससे वे भूगर्भ से जल प्राप्त करते हैं।
(5) इन वनों के कुछ वृक्षों की छाल व पत्ते मोटे होते हैं, जिनसे उनकी भीतरी नमी अधिक नष्ट नहीं हो पाती।
अधिकांश वृक्ष और झाड़ियों पर पत्ते कम होते हैं, परंतु वे कांटेदार होते हैं। जिससे पशु उनको हानि नहीं पहुंचा सकते।

प्रमुख वृक्ष - बेर, बबूल, नागफनी, झाउ, खजूर, कीकर, खैर, रामबाँस व करील यहाँ के प्रमुख है। यहाँ कैक्टस झाड़ी भी बहुत होती है।

आर्थिक महत्व - (1)इन वनों में इमारती लकड़ी का अभाव है, किन्तु ईंधन के लिये पर्याप्त लकडी भारत मिल जाती है। वनों के प्रकार
(2) यहाँ खैर, बबूल आदि वृक्षों से उपयोगी छाल और बबूल से इमारती लकड़ी प्राप्त होती है।

(5) ज्वारीय अथवा डेल्टाई वन - समुद्र तट से समीप नदियों के डेल्टाई भागों में इस प्रकार के वन मिलते हैं। डेल्टाई भूमि नीची और समतल होती है। ज्वार के समय डेल्टाओं के नीचे के भागों में समुद्र का नमकीन पानी भर जाता है, इस कारण ये भाग सदैव दलदली होते हैं। इन दलदली भागों में घने जंगल पाये जाते हैं। यहाँ वृक्ष सदैव हरे-भरे रहते हैं और ऊँचाई 30 मीटर के लगभग होती है , गंगा और ब्रह्मपुत्र के डेल्टाओं में सुंदरी नामक वृक्ष अधिक पाये जाते हैं, इसलिये इनको यहाँ सुंदर वन कहा जाता है। महानदी, गोदावरी, कृष्णा, और कावेरी नदियों के डेल्टाओं में भी इस प्रकार के वन मिलते हैं।

इन वनों की विशेषताएं निम्नलिखित हैं -
(1) ये वन सदैव हरे-भरे रहते हैं।
(2) ये वन सघन एवं दर्गम होते हैं। .
(3) इन वनों के वृक्षों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि अधिक नमी के कारण जड़ें भूमि के अंदर न जाकर भूमि के बाहर निकली होती है।

प्रमुख वृक्ष - मैनग्रोव, गारने, ताड़, कैसूरिया, नारियल, बेंत, सुंदरी तथा केवड़ा प्रमुख वृक्ष हैं। कहीं-कहीं पतझड़ व सदाबहार जाति के वृक्ष भी मिलते हैं।

आर्थिक महत्व -
(1) इन वनों से मजबूत व कठोर लकड़ी मिलती है जो बनाने व जलाने के काम आती है ।
(2) इन वनों की लकड़ी फर्नीचर बनाने के लिये उपयुक्त है।

(6) पर्वतीय वन - ये वन हिमालय के ऊँचे ढालों पर मिलते हैं। हिमालय की विभिन्न ऊँचाई यों पर तापमान और वर्षा में बड़ा अंतर रहता है। इस अंतर के अनुसार ही भिन्न-भिन्न ऊँचाईयों पर भिन्न - भिन्न प्रकार की वनस्पति पैदा होती है। हिमालय के पूर्वी भाग, पश्चिमी हिमालय की अपेक्षा अधिक वर्षा प्राप्त करते हैं। यही कारण है कि पूर्वी हिमालय पर अपेक्षाकृत सघन एवं विविध प्रकार की वनस्पति मिलती है। विभिन्नता के आधार पर हिमालय की वनस्पति का अध्ययन दो भागों में रखकर किया जा सकता है

(अ) पूर्वी हिमालय के वन - पूर्वी हिमालय में देश के उत्तर-पूर्वी राज्य के पर्वतीय भाग सम्मिलित हैं। यहाँ वार्षिक वर्षा का औसत 200 सेमी से अधिक रहता है। पूर्वी हिमालय में ऊँचाई के अनुसार वनस्पति में विभिन्नता निम्न प्रकार मिलती है -
1200 मीटर की ऊँचाई तक घास, छोटे -छोटे वृक्ष तथा झाड़ियों की अधिकता मिलती है। साल, शीशम, खैर, दिलेनिया आदि उष्ण कटिबंधीय वृक्ष यहाँ की प्रमुख वनस्पति हैं।
1200 मीटर से 2400 मीटर तक की ऊँचाई पर शीत कटिबंध सदाबहार वन मिलते हैं। ओक, बर्च, मैपिल, लारेल तथा एल्डर इस क्षेत्र के प्रमुख वृक्ष हैं।
2400मीटर से 3600 मीटर तक ऊँचाई वाले पर्वतीय क्षेत्र शीत-शीतोष्ण कटिबंधीय वन मिलते हैं। इसमें पाइन, फर, स्पूस तथा देवदार प्रमुख वृक्ष हैं।
3600 मीटर से अधिक ऊँचाई वाले भागों में एल्पाइन वनस्पति की प्रमुखता है जिनमें विलोफर, फर, जुनीफर, रोडेडोन्ड्रस के बौने तथा लाइकेन नामक काई व छोटी-छोटी घासें सर्वप्रमुख हैं।
4500 मीटर ऊँचाई पर टुण्ड्रा वनस्पति मिलती हैं। जिसमें कोई व लिचेन नाम घास उगती है।
6000 मीटर की ऊंचाई से ऊपर सदैव हिम जमा रहता है।

(ब) पश्चिम हिमालय के वन - पश्चिम हिमालय की वनस्पति भी पूर्वी हिमालय की वनस्पति की भांति ऊँचाई के साथ बदलती जाती है। लेकिन पूर्वी हिमालय की अपेक्षा पश्चिम हिमालय की वनस्पति कम सघन है, क्योंकि यहाँ पूर्वी हिमालय की अपेक्षा कम वर्षा होती है। यही कारण है कि सघनता के कम होने के साथ-साथ यहाँ के वृक्षों की ऊँचाई भी अपेक्षाकृत कम हैं। इन वनों की विशेषताएं हैं-
इन वनों में विभिन्न प्रकार के वृक्ष मिलते हैं।
बहुत अधिक ऊँचाई पर होने के कारण इनसे लकड़ी प्राप्त करना कठिन होता है।

आर्थिक महत्व - ये वन आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं -
(1) इन वनों में बहुमूल्य इमारती लकड़ी मिलती है।
(2) इन वनों पर कई उद्योग निर्भर है।
(3) इन वनों से कागज-लुगदी का निर्माण होता है।

वनों का प्रशासकीय वर्गीकरण 
प्रशासनिक दृष्टि से वनों को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में बाँटा गया हैं -
आरक्षित वन - इन वनों में वृक्षों को काटने और पशुओं के चराने पर सरकार की ओर से पूरी तरह रोक लगी हुई होती है, ऐसे भूमि के कटाव तथा बाढ़ों को रोकने तथा जलवायु एवं पर्यावरण संतुलन को बनाए रखने के लिये किया जाता है। इन वनों के अंतर्गत 52.7 प्रतिशत वन क्षेत्र आता है।
रक्षित वन - यह वन भी सरकारी होते हैं, किन्तु जनता को इन वनों में पशुओं को चराने एवं लकड़ी काटने की सुविधा दी जाती है। इन वनों के अंतर्गत 29 प्रतिशत वन क्षेत्र आते हैं।
अवर्गीकृत वन - इन वनों में लकड़ी काटने और पशुओं के चराने पर कोई प्रतिबंध नहीं होता है। यह सभी के लिये खुले होते हैं इनका क्षेत्र 18.3 प्रतिशत है।

वनों के स्वामित्व के आधार पर वर्गीकरण -
राजकीय वन - यह वन पूर्णत: सरकारी नियंत्रण में होते हैं, कुल वनों का 93.8 प्रतिशत क्षेत्र इन वनों के अंतर्गत आते हैं।
सामुदायिक वन - इन वनों पर जिला परिक्षेत्र एवं ऐसे वनों का क्षेत्रफल कुल वन क्षेत्रफल का 4.9 प्रतिशत है
निजी वन - इन वनों पर व्यक्तिगत लोगों का स्वामित्व होता है। कुल वन क्षेत्र का 1.3 प्रतिशत भाग इन वनों के अंतर्गत आता है।

भारत में वनों का वितरण - भारत में लगभग 752.3 हेक्टेयर भूमि पर वनों का विसतार है, जो प्रति व्यक्ति वनों का औसत देखे तो मात्र 0.2 हेक्टेयर आता है। भारत में वनों का वितरण असमान रूप से हैं, जिन्हें चार भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है
पर्याप्त वन भूमि वाले राज्य - इसके अंतर्गत वह राज्य आते हैं जहाँ कुलभूमि का 50 प्रतिशत से अधिक भाग वनों का है। इसमें अंडमान निकोबार द्वीप, मणिपुर, अरूणाचल, त्रिपुरा, मिजोरम और उत्तरांचल आते हैं।
आवश्यकता के अनुरूप वन वाले राज्य - पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने के लिये कम से कम 30 प्रतिशत भूमि पर वनों का होना आवश्यक होता है, भारत में 30 से 50 प्रतिशत वन भूमि वाले राज्यों में छत्तीसगढ़, मेघालय, दादर और नगर हवेली, असम, उड़ीसा, हिमाचल प्रदेश बस्तर संभाग | सिक्किम तथा मध्यप्रदेश आते हैं। चन मानचित्र
आवश्यकता से कम वन वाले राज्य - कई ऐसे राज्य है जहां बीस प्रतिशत से तीस प्रतिशत भूमि पर ही वन हैं, जिनमें केरल, गोआ, दमन-दीप, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र औरकर्नाटक आते हैं।
अल्पवन भूमि वाले राज्य - इसमें वह राज्य आते हैं जहां वन बीस प्रतिशत से भी कम है, उत्तरप्रदेश, नागालैंड, तमिलनाडु, बिहार, गुजरात, | पश्चिम बंगाल, जम्मूकाश्मीर,राजस्थान और हरियाणा ऐसे ही राज्य है।

देश के 50 प्रतिशत वन प्रायद्वपीय पठार और | पहाड़ियों में बीस प्रतिशत हिमालय पर्वतीय प्रदेश में | बारह प्रतिशत पूर्वी घाट और तटीय प्रदेश में 10.5 प्रतिशत पश्चिमी घाट तथा तटीय प्रदेश में तथा 7.5 प्रतिशत उत्तरी मैदान में पाए जाते हैं।

छत्तीसगढ़ में प्राकृतिक वनस्पति - 
छत्तीसगढ़ अंचल वनों की दष्टि से समद्ध प्रदेश माना जाता है, इसका 46 प्रतिशत भाग वनों से आच्छादित है। बस्तर, सरगुजा, रायगढ़, रायपुर और बिलासपुर जिले में वन संपदा भरपूर है। यहाँ के वनों को तीन भागों में बांटा जा सकता है
आरक्षित वन - इन वनों में मवेशियों को चराना मना होता है, छत्तीसगढ़ का कुल वन क्षेत्र का 38.67 प्रतिशत आरक्षित है।
संरक्षित वन - इन वनों में निकटवर्ती अथवा स्थानीय निवासियों को आवश्यकतानुसार लकड़ी काटने तथा मवेशी चराने की सुविधा नियंत्रित रूप से दी जाती है , प्रदेश का कुल 50.70 प्रतिशत भाग संरक्षित वनों का है।
अवर्गीकृत वन - आरक्षित तथा संरक्षित वनों के अतिरिक्त शेष वन अवर्गीकृत है, जहाँ मवेशी स्वतंत्रतापूर्वक चराए जाते हैं, यह प्रदेश के कुल वन का 10.63 प्रतिशत भाग है।

छत्तीसगढ़ राज्य में साल के वृक्ष बहुत अधिक पाए जाते हैं जो पूरे देश में प्रसिद्ध है, इसके अतिरिक्त और भी कई प्रकार के मिश्रित वनों की प्रजातियाँ हैं। छत्तीसगढ़ में वन लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों ही प्रकार से रोजगार उपलब्ध कराने का प्रमुख स्त्रोत है। यहाँ के वनों में प्रमुखत: निम्न वृक्षों की प्रजातियाँ पाई जाती है -

साल - साल के वन बस्तर में पाए जाते हैं साल की लकड़ी का उपयोग इमारतों में तथा रेलवे स्लीपर बनाने के लिये होता है।
सागौन - इसका उपयोग भी इमारती लकड़ी के रूप में होता है।
बाँस- छत्तीसगढ़ के वन बाँस उत्पादन के लिये प्रसिद्ध है । बाँस की लुगदी से कागज बनाया जाता है। छत्तीसगढ़ के कमार जन जाति के लोगों का जीवन बाँस के वनों पर ही आश्रित है, यह लोग बाँस के बर्तन, टोकरी और सजावटी वस्तुएं बनाकर अपना जीवन यापन करते हैं।
तेन्दूपत्ता - तेन्दूपत्ता छत्तीसगढ़ की प्रमुख उपज है जो यहाँ के बीड़ी उद्योग का आधार है।

इसके अतिरिक्त यहाँ साजा, हर्रा, कर्रा, सरई, अर्जुन, महुआ, बबूल, आंवला, शीशम, खैर, हल्दू, कुसमुम, चार, कहवा, तेन्दू, आदि के वृक्ष भी मिलते हैं। यहाँ की गौण उपजों में साल बीज, आंवला हर्रा, कोसम, बहेड़ा, आम, जामुन, सीताफल, बेर, भिलावा, सिंघाड़ा, कत्था, गोंद, शहद, तथा मोम व रेशम आदि है।

छत्तीसगढ़ के राष्ट्रीय उद्यान - छत्तीसगढ़ राज्य वन्य जीवों की दृष्टि से अत्यंत संपन्न राज्य है। यहाँ कई प्रकार के जीव पाये जाते हैं। सरगुजा में काला हिरण, बिलासपुर में नील गाय, साही, उदबिलाव, आदि पाये जाते हैं जो अब धीरेधीरे लुप्त होते जा रहे हैं।
वन्य प्राणियों के संरक्षण हेतु यहाँ अभ्यारण्य एवं राष्ट्रीय उद्यान बनाए जा रहे हैं जिनमें प्रमुख हैं -
(1)इन्द्रावती राष्ट्रीय उद्यान - यह राष्ट्रीय उद्यान दंतेवाड़ा में 1258 वर्ग किमी क्षेत्रफल में फैला हुआ है। यह उद्यान भारत शासन की प्रोजेक्ट टाइगर योजना के अंतर्गत है, यहाँ के मुख्य वन्य प्राणी- बाघ, तेन्दुआ, बारहसिंगा, और जंगली भैंसा आदि है।
(2) कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान - यह बस्तर जिले में स्थित है जिसे सन 1982 में राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया था, यह 200 वर्ग किमी क्षेत्रफल में फैला हुआ है। यह उद्यान बाघ, तेन्दुआ, चितल, सांभर जैसे वन्य प्राणियों के संरक्षण के लिय प्रसिद्ध है।
(3) गुरू घासीदास राष्ट्रीय उद्यान - यह सरगुजा और कोरिया जिलों में 2898.705 वर्ग किमी क्षेत्रफल में फैला हुआ है। इसका मुख्यालय बैकुंठपुर में है। इस उद्यान में बाघ, तेन्दुआ, चीतल और नील गाय तथा चिंकारा आदि पाये जाते हैं। पहले इसका नाम संजय राष्ट्रीय उद्यान था। इसका कुछ हिस्सा म०प्र० के सीधी जिले में है।

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